अब ना मैं हूँ, ना बाकी हैं ज़माने मेरे,
फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे,
ज़िन्दगी है तो नए ज़ख्म भी लग जाएंगे,
अब भी बाकी हैं कई दोस्त पुराने मेरे।
कहीं बेहतर है तेरी अमीरी से मुफलिसी मेरी,
चंद सिक्कों की खातिर तूने क्या नहीं खोया है,
माना नहीं है मखमल का बिछौना मेरे पास,
पर तू ये बता कितनी रातें चैन से सोया है।
हमारा ज़िक्र भी अब जुर्म हो गया है वहाँ,
दिनों की बात है महफ़िल की आबरू हम थे,
ख़याल था कि ये पथराव रोक दें चल कर,
जो होश आया तो देखा लहू लहू हम थे।
इस शहर की भीड़ में चेहरे सारे अजनबी,
रहनुमा है हर कोई, पर रास्ता कोई नहीं,
अपनी-अपनी किस्मतों के सभी मारे यहाँ,
एक-दूजे से किसी का वास्ता कोई नहीं।
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इस शहर की भीड़ में चेहरे सारे अजनबी,
रहनुमा है हर कोई, पर रास्ता कोई नहीं,
अपनी-अपनी किस्मतों के सभी मारे यहाँ,
एक-दूजे से किसी का वास्ता कोई नहीं।
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